Wednesday 31 July 2019

'सुख़न' : एक महफिल !

(३१ जुलै २०१७ को हमने 'सुखन' इस कार्यक्रम का मजा लूटा. उसीके बारे में ये चंद अल्फाज !) 
'सुख़न' के बारेमें बहुत दिनोंसे सुना तो था मगर कल, इतवार की दोपहर को जाकर उसमें 'शामिल' होने का मौका मिला. 'सुख़न' में उर्दू जुबाँ की नज़ाकत, उसकी अदब और  मिठास का मुजायरा होता है. 'सुख़न' उर्दू का वो  जश्न है जिसमें शेरों-शायरी, नज्म, कहानियाँ, कव्वाली की उमदा पेशकश से हमें एक निहायती खूबसूरत तज़ुर्बा मिलता है. उर्दू अल्फाजोंकी हद को सिर्फ दिल-इश्क-दर्द-मयखाना-साकी तक ही समझना नाइन्साफी ही नहीं होगी बल्कि होगा एक किस्म का बेगानापन! 
इस जश्न का आगाज जयदीप वैद्य जी ने 'ओ हुसना' ये दर्दभरा नग्मा सुनाकर किया.
'सुख़न' की उर्दू की नुमाईश से आप उस दायरे के बाहर के कई लफ्जोंसें वाकिफ होंगे, उनका जायका लेंगे और  लुत्फ उठायेंगे.
 उर्दू जुबाँ को सिर्फ एक मजहबसे जोडना भी गलत होगा. कोई भी जुबाँ दिलोंको जोडने का ही काम करती है.
उसका मस्ला 'सुख़न' में सुने इस शेर से मिला-
किसी बच्चे के हाथ में नक्शा न दीजिएगा
क्या पता कहीं कोई सरहद ही न मिटा दे!
भौचक्का तो मैं तब रह गया जब देखा कि सुख़न में तश्रीफ रखनेवाले काफी सारे उम्र में जवाँ थे और उनमेंसे बहुतोंको तो कितने सारे शेर और  नज्में जुबानी याद थे.
'सुख़न'के फ़नकार ओम  भुतकर और  नचिकेत देवस्थळी का शायरी पेश करने का एक जबर्दस्त अंदाज़ है. पहले ओम जी शेर का मिसरा सुनाते हैं और फिर उस मिसरे को नचिकेतजी अपने अलग अंदाज़में उठाते हैं और फिर ओम जी उसे अलग तरीकेसे दोहराते हैं और मिसरा-ए- सानी सुनाते हैं. दोनोंका दोस्ताना खूब रंग लाता है. 
नचिकेत देवस्थळी और ओम भुतकर 

'सुख़न ' के पीछे एक गहरी सोच है ये तो नज्मों- शेरों- कहानी- कव्वाली के इन्तिख़ाब से पता चलता ही है और गौर तलब बात ये भी है कि उसका माहौल भी दिलचस्प होता है. फ़नकारोंके सामने रखें हुए चिराग, फ़नकार जब गाता है तब सिर्फ उसीपर रोशनी का दायरा होना उस माहौल को और खूबसूरत बनाता है. सुख़न के सभी फ़नकार अव्वल दर्जेके हैं. लेकिन खास जिक्र करना चाहूँगा जयदीप वैद्यजी का. क्या आवाज पाई है! क्या खूब गाते हैं! अवंती पटेलजी की आवाज को तो सभी पहचानते ही हैं. उन्होंने गायी हुई गझल 'आपकी याद आती रही' दिल को छू गई. 
और एक शख्स थे(उनका नाम मैं भूल गया)जिन्होंने शुरू में सारंगी बजाई और बादमें कव्वाली के लिए जोशसे ढोलक भी बजाया! क्या कहने!
पूना का हूँ तो जाहिर है सिर्फ तारीफ तो नहीं करूँगा! एक बात जरूर कहना चाहूँगा- आगाज से अंजाम तक मुसलसल शेर- नज्में सुनने को मिलते हैं लेकिन सारे के सारे जहन में रहते रहते सिमट जाते है. अब इसका हल कैसे ढूँढे? क्या इसकी कोई किताब बन सकती है?
आखिर में मैं मेरे सभी दोस्तोंको तहें दिलसे 'सुख़न' देखने की सिफारिश करता हूँ.
और मुझे उम्मीद है कि आप मेरी इस लिखाई में जाने- अन्जानेमें हुई गलतियोंको नजरअंदाज करेंगे!

1 comment:

dhana said...

It's always a pleasure to read your blogs. I too have attended this program and Indeed, usake baad koi hindi na bole to kya... Nice to see the blog in hindi:)